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सोमवार, 28 दिसंबर 2020

Story of Mr. Mayureshwar

 दोस्तों एक बार फिर से आपका स्वागत है आज मैं आपको भगवान गणेश जी के मयूरेश्वर मंदिर के बारे में बताने जा रहा हूं मोरगांव का श्री मयूरेश्वर मंदिर अष्टविनायक के आठ मंदिरों में से एक है। कहते हैं कि मोरगांव का नाम मोर के साथ जुड़ने की भी एक कथा है इसके अनुसार एक समय था जब यह क्षेत्र मोरों से भरा हुआ था। मोरगांव करहा नदी के किनारे, पुणे से लगभग 80 किलोमीटर दूर अवस्थित है। जहाँ मयूरेश्वर के दर्शन-पूजन के लिए श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। 



                







 कथा श्री मयूरेश्वर की


  कथानुसार देवताओं को दैत्यराज सिंधु के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने हेतु गणेश जी ने मयूरेश्वर का अवतार लिया था। सिंधुरासुर के अत्याचार से कुपित होकर देवतागण भगवान शिव एवं माता पार्वती के पास गए और अपनी व्यथा सुनाई। संयोगवश उस समय गणेश जी भी वहीं बैठे हुए थे। देवताओं की करुणा सुनकर गणपति जी ने माता पार्वती से कहा कि “माता मैं दैत्यराज सिंधु का वध करूँगा। तब माता पार्वती एवं भगवान शिव ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि यह कार्य निर्विघ्न पूरा होगा। तब मोर पर सवार होकर गणपति जी ने दैत्य सिंधु की नाभि पर वार किया तथा उसका अंत कर देवताओं को उस दैत्य से मुक्ति दिलाई। गणपति जी ने मोर पर सवार होकर दैत्य सिंधु का वध किया इसलिए उन्हें ‘मयूरेश्वर’ की पदवी प्राप्त हुई। मयूरेश्वर देव को ‘मोरेश्वर’ भी कहते हैं। एक आख्यान ऐसा भी आता है कि ब्रह्मा जी ने सभी युगों में भगवान गणपति के अवतार की भविष्यवाणी की थी। ब्रह्मा जी के भविष्यवाणी के अनुसार मयूरेश्वर त्रेतायुग में गणपति के अवतार थे। विद्वानों का मानना है कि गणपति को मयूरेश्वर इसलिए कहा जाता है,क्यों कि उन्होंने ‘मोरेश्वर’ में रहने का निश्चय किया और मोर की सवारी की।

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 मयूरेश्वर मंदिर के चारों कोनों में मीनारें हैं एवं लंबे पत्थरों से बनी हुई दीवारें हैं। यहाँ पर चार द्वार बने हुए हैं और ये चारों द्वार चारों युग - सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग के प्रतीक हैं। इस मंदिर के द्वार पर भगवान महादेव के वाहन नंदी बैल की मूर्ति स्थापित है, जिसका मुख भगवान गणेश की मूर्ति की ओर है। नंदी की स्थापित मूर्ति के संबंध में यहां प्रचलित मान्यताओं के अनुसार कहा जाता है कि प्राचीन काल में शिवजी और नंदी इस मंदिर क्षेत्र में विश्राम के लिए रुके थे। विश्राम करने के बाद जब शिवजी विदा होने के लिए उठे तो उनके वाहन नंदी ने यहां से जाने के लिए मना कर दिया। कहते हैं कि तभी से नंदी यहीं अवस्थित है। नंदी और मूषक, दोनों ही मंदिर के रक्षक के रूप में तैनात हैं। मंदिर में गणेशजी बैठी हुई मुद्रा में विराजमान है तथा उनकी सूंड बाएं हाथ की ओर है व उनकी चार भुजाएं एवं तीन नेत्र हैं। कहते हैं कि मयूरेश्वर की मूर्ति यद्यपि आरम्भ में आकार में छोटी थी, परंतु दशकों दर दशक इस पर सिन्दूर लगाने के कारण अब यह बड़ी दिखती है। किवदंती ऐसी भी है कि भगवान ब्रह्मा ने विनायक जी की इस मूर्ति को दो बार पवित्र किया है जिससे की यह अविनाशी हो गई है। 



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वैसे तो मयूरेश्वर गणपति के दर्शन के लिए साल के 365 दिन श्रद्धालुओं का आना जाना लगा रहता है लेकिन गणेश उत्सव के पावन अवसर पर यहाँ पहुँचने वाले श्रद्धालुओं की संख्या अधिक रहती है। मान्यता है कि सच्चे मन से जो भी व्यक्ति मयूरेश्वर देव का दर्शन पूजन करते हैं उनकी मनोकामनाएं पूर्ण होती है। रेल मार्ग से मयूरेश्वर पहुंचने के लिए पुणे प्रमुख रेलवे स्टेशन है जो की देश के सभी बड़े शहरों से रेल मार्ग द्वारा परोक्ष रूप से जुड़ा हुआ है। स्टेशन से मोरगांव पहुंचने के लिए बस, मिनी वैन या टैक्सी सेवा उपलब्ध है। वहीं सड़क मार्ग से मोरगांव जाने के लिए पुणे, मुम्बई समेत महाराष्ट्र के अन्य सभी शहरों से सरकारी बस सेवा उपलब्ध है। इसके अलावा श्रद्धालु प्राइवेट बस, टैक्सी एवं निज़ी वाहन द्वारा भी मोरगांव पहुंच कर मयूरेश्वर/मोरेश्वर विनायक का दर्शन-पूजन करते हैं एवं उनसे अभय वरदान प्राप्त करते हैं। 


"ॐ एकदन्ताय विद्महे मयूरेश्वराय धीमहि तन्नो बुदि्ध प्रचोदयात।।"

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