कुछ अनसुलझी गुत्थी या | Aadhyatmik and knowledge

कुछ अनसुलझी गुत्थी या



मनुष्य अपने को ज्ञान का, श्रेष्ठता का, प्रकृति का सिरमौर मानता है। लेकिन विश्व - ब्रह्माण्ड के बारे में अभी तक जितना कुछ जाना जा सका है उसके बारे में यही कहा जा सकता है कि अभी हम कुछ सीपियाँ ही बिन पायें है। मणिमुक्तक बहुमूल्य चीजें तो अभी भी प्रकृति के अंतराल में छिपी पड़ी है जिन्हें ढूँढ़ा नहीं जा सकता । प्रकृति की कितनी ही पहेलियाँ ऐसी है जिनका रहस्योद्घाटन करना मानवी बुद्धि के लिए एक चुनौती बनी हुई है। प्रकृति की इन पहेलियों को देखकर मनुष्य को अपनी क्षुद्रता का परित्याग करना ही चाहिए।  

“ मारवेल्स एण्ड मिस्टरीज ऑफ द वर्ड एराउन्ड अस” नामक पुस्तक में इस तरह की कितनी ही प्रकृति की रहस्यमय रचनाओं एवं घटनाओं का वर्णन किया गया है उनमें से एक है- रहस्यमय गीत गाती पालवों की प्राकृतिक घटना ! विश्वविख्यात “ अरेबियन नाइट्स “ में एवं मध्य एशिया के गोबी के रेगिस्तानों में इस प्रकार के अनेकों रहस्यों का उल्लेख चीन के प्राचीन इतिहास में पाया जाता है। इतना ही नहीं ख्यातिनामा यात्री मार्कोपोलो ने भी अपनी यात्रा संस्करण में इन प्रदेशों में प्राकृतिक संगीत सुनने का उल्लेख किया गया है।
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पिछले दो दशक से ब्रिटेन की न्यूकेशन ऑन टाइम युनिवर्सिटी में गीत गाती बालुओं की प्राकृतिक घटना के संबंध में अनुसंधान चल रहा है। ताल एवं लय के साथ गाने के अतिरिक्त कानाफूसी करती, गर्जना करती तो कभी चूँ चूँ की आवाज निकालती, भिनभिनाती, तो कभी चीखती बालू संसार के विभिन्न भागों में पायी जाती है किंतु इनके ये रहस्य प्राचीन काल से अभी तक नहीं खोले जा सके है।
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इस संदर्भ में 19वीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध ब्रिटिश भूगर्भ शास्त्री एगमिलर ने अपनी पुस्तक - “ दी क्राइज ऑफ दी बिटसी” में अपना निजी अनुभव बताते हुए लिखा है कि स्कॉटलैंड के भीतरी हेबरीडीश के निकट ‘ईग’ नामक द्वीप पर जो रेत फैली थी उस पर पैर रखते ही सुरीली आवाज आने लगती थी। प्रत्येक कदम पर उसी ध्वनि का पुनरावर्तन होता था। वु.......वु ......वु जैसी सुरीली व ध्वनि तीस गज की दूरी तक सुनाई पड़ती थी। इसी प्रकार की सुरीली आवाज करने वाली बालु अमेरिकी महाद्वीप में “ लागे आइलैण्ड “ एवं मेस्च्यूसेंट की खाड़ी की बालु में भी होती है। इतना ही नहीं हवाई द्वीप में ब्रिटेन के वेइलस के पश्चिमी तट पर, नार्थम्बरलैण्ड के समुद्री तट पर, बोर्नहोम द्वीप में, डेनमार्क के कुछ स्थानों में, पोलैण्ड में, आस्ट्रेलिया, ब्राजील, चिली, एशिया, अफ्रीका, मध्यपूर्व के रेगिस्तानों में भी इस प्रकार की बालू पायी जाती है, जहाँ भिन्न भिन्न प्रकार की ध्वनि हुआ करती है।
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मूर्धन्य वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन ने भी अपनी कृति “ए नेच्यूरेलिस्ट वायेज राउन्ड द वर्ड “ में लिखा है कि ब्रजील के रि- यों -डी जानिरो के निकटवर्ती द्वीपों की तप्त बालुओं पर घोड़ों के चलने पर चूँ- चूँ की आवाज आने लगती है। इसी तरह चीलि में एक रेतीले टीले पर चढ़ते समय उससे गर्जने की आवाज आने लगती है। चढ़ते समय नीचे गिरने वाली रेत से भी वही ध्वनि निकलती थी। 

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स्कॉटलैंड के विख्यात प्रकृतिविद् सर डैविन ब्रायुस्टर ने अपनी पुस्तक “ लेटर्स आन नेचुरल मैजिक “ में ‘ दि माउन्टेन ऑफ बेल’ नामक एक रेतीली पहाड़ का वर्णन किया। उस पहाड़ पर चढ़ने से रेत कणों में एक प्रकार का तीव्र कंपन होने लगता है और रेत नीचे धंसने लगती है जिससे मेघ गर्जन जैसी भयानक आवाज आने लगती है और आस पास का स्थान भी कम्पायमान होने लगता है। प्रशान्त महासागर के मध्य स्थित हवाई द्वीप समूह की रेत, लावा, शाख और प्रवाल के मिश्रण से बनी हुई है। उस पर चलते समय कुत्ते भौंकने जैसी आवाज आने लगती है।
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ब्रिटेन के प्रसिद्ध भौतिक विज्ञानी आर. ए. बेगनोल्ड ने इस प्रकार की विभिन्न रहस्यों वाली बालुओं पर गहन अनुसंधान किया है । अपने शोध निष्कर्ष में उन्होंने बताया है कि इजिप्ट से 300 मील दक्षिण- पश्चिम में जहाँ निकटतम आवास भी पाये जाते हैं, वहाँ रात्रि के शांत वातावरण में कभी कभी अचानक मेघ गर्जन की सी आवाज आने लगती है और आस पास की धरती काँपने लगती है।
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यह आलौकिक वृंदगान कुछ मिनटों तक लगातार होता रहता है फिर एकाएक शान्त हो जाता है । उनके अनुसार बालुओं में ध्वनि होने के दो स्थान होते हैं (1) समुद्रतट पर (2) रेगिस्तानी रेतीले टीलों में! स्कॉटलैंड के ईदाद्वीप के रेत में से निकलने वाली ध्वनि ऐसे सुनाई पड़ती है जैसे कोई जोर से सीटी बजा रहा है। यह ध्वनि समुद्रतट की रेत से निकलती है, जबकि रेगिस्तानी रेत से ‘ गर्जना ‘ की आवाज आती है। तट प्रदेश की बालू से 700- 1200 साइकल्स के प्रति सेकेण्ड के आवर्तन से ध्वनि होती है इसे पियानो के उच्च “ सी” ध्वनि से तुलना की जा सकती है।
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जबकि रेगिस्तान की बालू से इससे बहुत कम -132 साइकल्स प्रति सेकेण्ड के आवर्तन की ध्वनि हो पाती है। लेकिन जब रेतीले टीलों पर से वह प्रपात की तरह नीचे आती है तब 260 साइकल्स के प्रति आवर्तन से ध्वनि करती ह जो पियानों के मध्य स्वर - “ सी”की तुलना के बराबर होती है। वैज्ञानिक अभी तक इतना ही जान पायें हैं कि गाते - बजाते, शोर मचाते प्रकृति के ये नन्हें कण किसी स्तर की और कितनी ध्वनि उत्पन्न करते हैं परन्तु इसका मूल कारण वे नहीं ढूंढ़ पाये हैं। यद्यपि इस संबंध में प्रयत्न भी तो किये गये हैं। पिछले दिनों प्रीटोरिया “साउथ अफ्रीका” की प्रयोग शाला में कलहारी रेगिस्तान की बालू का जब परीक्षण किया गया तो उसकी वह ध्वनि उत्पादक क्षमता गायब थी जो रेगिस्तानी जलवायु में पायी जाती है।

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लेकिन जब उसी प्रयोग को दोबारा रेगिस्तानी वातावरण में सम्पन्न किया गया तो वह क्षमता यथावत पायी गयी। कि यदि उसी बालू को 200 डिग्री सेंटीग्रेड के तापमान पर रखा जाय तो वह क्षमता कुछ अंशों में फिर से वापस आ जाती है। विज्ञानवेत्ताओं का मानना है कि रेत कणों द्वारा ध्वनि उत्पन्न के लिए आवश्यक है कि सभी रेत कण एक समान आकार के है। दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि बालू के दो सतहों के बीच दबाव और घर्षण उत्पन्न हो।
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प्रकृति अपने आँचल में कितने रहस्य छिपाये हुए हैं, अभी तक उन्हें जान सकना तो दूर, उनकी गणना तक कर पाना संभव नहीं हो सका है। नगण्य सी चीज समझे जाने वाले बालू के कण ही अपने भीतर कितने आश्चर्य चकित कर देने वाले रहस्य समेटे हुए हैं । कि उनकी सम्पूर्ण जानकारी मनुष्य को नहीं है।उपरोक्त पंक्तियों में रेत केवल गाने, शोर माने वाले गुणों का ही वर्णन किया गया है, किन्तु कही कही पर प्रकृति के ये कण आतंकित करने वाले मृत्यु पास भी बन जाते हैं। इन्हें “ चोर-रेत या बलुआ दलदल कहते हैं।”
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घटना मार्च 1970 की है। अमेरिका के फ्लोरिडा राज्य में ओकीयोबी नामक झील प्रकृति छटा देखने हेतु जेक पिकेट एवं फ्रेड सोल नामक दो छात्र आवश्यक सामान लेकर घर से निकले थे रास्ते में एक सूखी बालूवी नदी को पार करने जा रहे थे। पिकेट आगे था। कुछ ही कदम वह बढ़ पाया होगा कि अचानक जमीन में धंसने लगा। ठोस धरातल पाने के लिए जैसे जैसे वह कदम बढ़ाता, प्रत्येक कदम के साथ और गहराई में धंसने लगा। वह चिल्ला उठा “ सोल तुम वही खड़े रहो, यह बलुआ दलदल है” । यह सुनते ही सोल को लगाकर कि आगे बढ़कर बचाने में दोनों को खतरा है अतः उसने पास ही पड़ी पेड़ की एक डाली उठाई और पिकेट की ओर बढ़ाया । तब तक पिकेट जाँघों तक बालू में धंस चुका था ।
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उसके आस पास की बालू मानो कोई अवलेह कर हौज हो और उसे हिलाया जा रहा हो, कि तरह से थिरकने लगी थी वह उसके पास में बुरी तरह जकड़ चुका था अपना संतुलन खो कर वह गिर पड़ा जब तक पेड़ की शाखा उस तक पहुँची, वह गर्दन तक नीचे धंस गया था। हाथ बढ़ाने के भरसक प्रयत्न भी किये पर वह असफल ही रहा। तब सोल ने डाली को उसके शरीर के नीचे घुसा कर एक पत्थर को आधार बनाकर उस पर शरीर को उठाना चाहा, लेकिन सूखी डाल टूट गयी और पिकेट पूरी तरह बालू में लुप्त हो गया। मात्र सर्वत्र चारों ओर सूखी बालू दृष्टिगोचर हो रही थी ईद गिर्द दूर दूर तक और कोई व्यक्ति नहीं था। अकेले सोल ने अपने मित्र की जान बचाने की भरसक कोशिश की किन्तु असफलता ही हाथ लगी।शोकाकुल होकर वह वापस कॉलेज लौट गया ।
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दुखद घटनाक्रम सुनने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं था। इसी तरह कुछ वर्ष पूर्व उत्तरी अमेरिका के आरकाँसस प्रान्त में बेर्डेन स्थान के पास एक शिकारी दल अचानक नदी के तट के पास जा पहुँचा । घनी झाड़ियों को पार करते समय एकाएक दल की नजर सामने एक भयभीत कर देने वाले दृश्य पर पड़ी। सभी वही रुक गये । देखा कि सामने बालू की सतह पर किसी मनुष्य का मात्र सिर भर दिखाई दे रहा था जिसकी आंखें आसमान की ओर थी। तलाश करने पर पता चला कि वह बलुआ दलदल थी जिसमें वह व्यक्ति सिर तक धंस गया था और भूखों मर कर मृत्यु की गोद में चला गया था। एक अन्य घटना में दूसरे विश्व युद्ध के समय नाजी बमबारी से ग्रस्त होकर कप्तान रोजर जोन्स अपना ट्रक लेकर बालू वाले क्षेत्र से निकल भागने का प्रयत्न कर रहा था कि थोड़ी दूर आगे जाकर उसका ट्रक बालू के भीतर धंसने लगा। किसी तरह जान बचाकर वह वहाँ से भाग निकलने में सफल हो सका, पर गाड़ी वही लुप्त हो गयी।
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इस घटना के बाद अमेरिकी सैन्य विभाग की ओर से इस दिशा में कई अनुसंधान कार्य हाथ में लिये गये हैं। ऐसा ही एक अनुसंधान इण्डिआना राज्य के वरिष्ठ विज्ञानवेत्ता डॉ0 आर्नेस्ट राइस स्मिथ ने किया इसके लिए उन्होंने एक किसान की बलुआ दलदल वाली जमीन को चुना जो एक नदी के निकट थी। लम्बे समय तक अध्ययन करने के पश्चात उन्होंने बताया है कि जब उक्त स्थल पर कोई बड़ा पत्थर फेंका जाता तो आस पास की बालू अप्रीतिकर ढंग से स्पंदित होने लगती और ऐसा दिखाई पड़ता मानो वह सही हो।
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सबसे बड़ा आश्चर्य जनक तथ्य उभर यह आया है कि वह दलदल ऋतु परिवर्तन के साथ अपना रंग और गुण धर्म भी बदलता रहता है। कभी तो उस स्थान की बालू दलदल जैसी होती है, तो कभी ठोस हो जाती है। अगस्त माह में वह इतनी ठोस हो जाती है कि उस पर कितनी ही उछल कूद ही क्यों न की जाय कोई हलचल नहीं होती। अगस्त माह में वह बिल्कुल सूखी होती है, फिर भी यह एक रहस्य ही बना हुआ है कि इसके बाद वह अपना गुण धर्म क्यों बदल देती है ? मानवी बुद्धि के लिए प्रकृति के ये रहस्य अभी भी अनसुलझे बनें हुए हैं और उसकी बहुज्ञाता के लिए चुनौती दे रहे है।


 सनातन धर्म परिवार

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Milan Tomic

Hi. I’m Designer of Blog Magic. I’m CEO/Founder of ThemeXpose. I’m Creative Art Director, Web Designer, UI/UX Designer, Interaction Designer, Industrial Designer, Web Developer, Business Enthusiast, StartUp Enthusiast, Speaker, Writer and Photographer. Inspired to make things looks better.

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